- हिन्दी में – अरना (नर), अरनी (मादा)
- वितरण – ये मुख्यतः नेपाल की तराई के घास वनों में, असम में ब्रह्मपुत्र के मैदान में, ओडिशा के कुछ हिस्सों में अत्यल्प संख्या में और छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में प्रमुखतः इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान, कुटरू वन क्षेत्र एवं उदयंती अभयारण्य में पाए जाते हैं.
- शारीरिक संरचना – यह विशाल, कंधे पर औसतन 5 फीट तक लम्बा और 900 किग्रा वजन का प्राणी होता है. इसके सींग अधिकतम 197-6 सेमी तक लम्बे दर्ज किए गए हैं. यह दिखने में पालतू भैंस से मिलता- जुलता होता है, लेकिन उससे अधिक भारी एवं विशाल होता है. सम्पूर्ण शरीर काला (Slaty-black) होता है, किन्तु जन्म के समय यह (Calf) लगभग पीला होता है. घुटने और खुर के मध्य पैर मटमैला सफेद होता है. इसके सींग दो तरह के होते हैं – एक में यह माथे से ऊपर की ओर अर्धवृत्ताकार होता है, जिसमें दोनों छोरों (Horn tips) के मध्य अन्तराल अत्यंत कम होता है, दूसरे में ये माथे से बाहर की ओर लगभग समानांतर और घुमाव थोड़ा ऊपर की ओर होता है. इसमें छोरों के मध्य अन्तराल अधिक होता है. एक ही झुंड (Herd) में दोनों प्रकार मिल सकते हैं और इन दोनों प्रकारों के मध्य भी थोड़े अन्तर के साथ (intergrading between the two forms) अनेक उप- प्रकार भी मिलते हैं.
- आवास – लम्बे घासयुक्त, दलदली एवं जलयुक्त स्थलों, जिनके किनारे लम्बी घास उपलब्ध हो, इनके लिए आदर्श प्राकृतावास है. लोटने के लिए कीचड़ एवं डूबे रहने के लिए पानी की उपलब्धता, भोजन के बाद इनकी प्रथम आवश्यकता है, किन्तु कठोर मैदानी क्षेत्र, जिसमें घास के फैलाव के साथ वृक्ष भी हों एवं वर्ष भर बहने वाले नाले, नदियाँ सम्पूर्ण क्षेत्र में फैले हों, ऐसे क्षेत्र प्रदेश में अत्यंत कम हो चले हैं. बायसन के विपरीत ये वनों के समीप की बसाहट से लगे खेतों में प्रवेश कर जाते हैं.
- भोजन – ये शाकाहारी होते हैं और घास इनका प्रमुख आहार है.
- प्रजनन – सामान्यतः वर्षा के अन्त में प्रजनन होता है और मार्च से मई के मध्य में युवा (Calf) जन्म लेते हैं.
- शत्रु – यद्यपि ये शांत प्रवृत्ति के होते हैं, किन्तु अचानक हमला कर देते हैं. इन्हें उकसाने या उत्तेजित करने की आवश्यकता नहीं होती. इनके प्रमुख शत्रुओं में शेर और मावन शिकारी हैं, किन्तु शक्तिशाली भैंसा शेर को भी खदेड़ देता है. ‘रिंडरपेस्ट’ जैसी बीमारी इनकी नस्ल के लिए घातक है.
- संरक्षण – इनकी संख्या में वृद्धि करने हेतु इन्हें राज्य के अन्य क्षेत्रों में ले जाकर छोड़ा जाना चाहिए, ताकि बस्तर के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी ये स्थापित हो सकें. वन्य प्राणी विशेषज्ञों ने इन्हें निश्चेष्ट कर इनके स्थानान्तरण की विधि प्रस्तुत कर दी है, जिसमें ‘एटोरफीन’ हाइड्रोक्लोराइड’ एवं ‘एसीपी’ की उचित मात्रा का डार्टसंधान कर उपयोग किया जाता है. अन्य क्षेत्रों में स्थापित करने से किसी एक क्षेत्र में महामारी आदि से इनके समूल नष्ट होने का खतरा नहीं होगा.
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