- प्राचीनकाल में छत्तीसगढ़ ‘दक्षिण कोसल’ कहलाता था. संभवतः इस क्षेत्र में उत्तम गुणवत्ता के कोसा की प्रचुरता के कारण इसे कोसल संज्ञा प्राप्त हुई. कोसा आज भी छत्तीसगढ़ की पहचान है. इतिहासकार प्यारेलाल गुप्त के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की माता कौसल्या, कोसलाधीश की पुत्री थीं और बिलासपुर का ‘कोसला’ ग्राम यहाँ की राजधानी थी अर्थात् छत्तीसगढ़ की दक्षिण कोसल अभिधा कम-से-कम उतनी ही प्राचीन है, जितनी रामकथा. इस प्रकार रामायण काल से ही प्रदेश की एक पृथक् भौगोलिक, सांस्कृतिक पहचान थी. तब से लगभग 17वीं शताब्दी तक इसे दक्षिण कोसल कहा जाता रहा. ऐतिहासिक काल में यह क्षेत्र सर्वप्रथम मौर्य, फिर सातवाहन, गुप्त, वाकाटक साम्राज्यों का अंग रहा. इसके बाद यहाँ नलवंश की (दक्षिणी हिस्से में) और अंततः सोमवंशियों की स्वतंत्र सत्ता कायम हुई. सिरपुर के सोमवंशियों के पतन के बाद कलचुरि यहाँ के अधिपति बने. 16वीं शताब्दी तक कलचुरियों की सत्ता क्षीण होने पर मंडला के गोंडवाना राज्य का कुछ समय तक यहाँ कुछ हिस्से में ( रतनपुर को छोड़कर शेष भाग में) आधिपत्य रहा. अंततः नागपुर के भोंसला राज्य ने छत्तीसगढ़ को 1741 ई. में मराठा राज्य का अंग बना लिया. इस अवधि तक हमें इस क्षेत्र का नाम दक्षिण कोसल अथवा रतनपुर राज्य (मुगलकाल में, अबुल फजल ने रतनपुर राज्य सम्बोधित किया है) मिलता है. दक्षिण कोसल को संभवतः मराठा काल में ही गढ़ों की संख्या अथवा अधिकता के आधार पर बंदोबस्त के दृष्टिकोण से (प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से ) छत्तीसगढ़ कहा जाने लगा. इस प्रकार छत्तीसगढ़ अभिधा अधिकतम तीन सौ वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है.
- 15वीं सदी में खैरागढ़ राज्य के राजा लक्ष्मीनिधि राय के चारण कवि दलराम राव द्वारा 1497 ई. में ‘छत्तीसगढ़’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया किया था, किन्तु इतिहास में छत्तीसगढ़ की स्वतंत्र राजनैतिक-सांस्कृतिक सत्ता की कल्पना कवि गोपाल मिश्र द्वारा सर्वप्रथम की गई प्रतीत होती है. ये राजा राजसिंह (1689 – 1712 ई.) के राजाश्रय में थे. इन्होंने अपनी कृति ‘खूब तमाशा’ में रतनपुर राज्य के लिए सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग था. इसके बाद ‘ तवारीख-ए-हैह्यवंशीय राजाओं की एवं रतनपुर का इतिहास लिखने वाले बाबू रेवाराम ने 1896 ई. में ‘विक्रमविलास’ नामक अपने ग्रंथ में इस राज्य को छत्तीसगढ़ की संज्ञा दी है.
- वस्तुतः मराठों के आगमन के पश्चात् छत्तीसगढ़ एक पृथक् राजनीतिक इकाई के रूप में देखा जाने लगा था. पहले मराठों ने इसे अपना एक सूबा बनाया. राजकुमार बिंबाजी (1758-87 ) के बाद 1818 ई. तक मराठा सूबेदार ही यहाँ के शासक थे. बिंबाजी के समय बस्तर में महान् हल्बा क्रांति 1773-79 ई. हुई, जिससे निपटने राजा को मराठा सैन्य सहायता हेतु विवश होना पड़ा, जिसने राजा दरियादेव (1777- 1800 ई.) को मराठों का राजनिष्ठ बना दिया. सैन्य सहयोग के प्रभाव में हुई 6 अप्रैल, 1878 ई. की संधि, जिसमें ₹59,000 की वार्षिक ‘टकोली’ सम्मिलित थी, ने बस्तर राज्य को मराठों की अधीनता में ला दिया. अब नागपुर राज्य की दृष्टि में बस्तर भी छत्तीसगढ़ सूबे का अंग था और यहाँ से अन्य जमींदारियों की भाँति उन्हें निश्चित ‘टकोली’ प्राप्त होती थी. इस तरह सम्पूर्ण दंडकारण्य अर्थात् स्वतंत्र बस्तर राज्य छत्तीसगढ़ का अंग बन गया. कालांतर में बस्तर के राजाओं ने मराठा सत्ता की अवमानना के प्रयास किए, जिससे भोंसलों को ‘टकोली’ हेतु युद्ध भी करना पड़ा. 1818 से 1854 ई. तक छत्तीसगढ़ में नागपुर से भेजे गए जिलेदार सत्तासीन रहे एवं 1818 से 1830 ई. के मध्य ब्रिटिश नियंत्रण के साथ वे 1854 ई. तक यहाँ राज्य करते रहे. 1854-55 ई. में छत्तीसगढ़ ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया. जब 1861 ई. में मध्यप्रांत का गठन हुआ तब छत्तीसगढ़ इसके पाँच संभागों में से एक था. 1905 में इसके एक जिले संबलपुर (उड़िया भाषी क्षेत्र) को तत्कालीन बंगाल प्रांत के ओडिशा में तथा सांस्कृतिक समानता के कारण बंगाल के छोटा नागपुर ( बिहार ) के अन्तर्गत आने वाली पाँच रियासतों जशपुर, सरगुजा, उदयपुर, चांगभखार व कोरिया को मध्य प्रांत के छत्तीसगढ़ संभाग में मिला दिया गया. और इस तरह वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य का मानचित्र 1905 में बन गया था. इस समय सम्पूर्ण क्षेत्र में कुल 14 रियासतें थीं.
- सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ राज्य की स्पष्ट कल्पना करने वाले व्यक्ति थे – विद्वान्, साहित्यकार, हरिजन सेवक, स्वतंत्रता सेनानी पं. सुन्दरलाल शर्मा जिन्होंने 1918 में अपनी पांडुलिपि में छत्तीसगढ़ राज्य का स्पष्ट रेखाचित्र खींचते हुए इसे इस प्रकार परिभाषित किया था – जो भू-भाग उत्तर में विंध्यश्रेणी व नर्मदा से दक्षिण की ओर इंद्रावती व ब्राह्मणी तक है, जिसके पश्चिम में वेनगंगा बहती है और जहाँ पर गढ़ नामवाची ग्राम संज्ञा है; जहाँ पर सिंगबाजा का प्रचार है, जहाँ स्त्रियों का पहनावा (वस्त्रप्रणाली) प्रायः एक वस्त्र है तथा जहाँ धान की खेती होती है, वही भू-क्षेत्र छत्तीसगढ़ है. इस प्रकार पं. शर्मा ने छत्तीसगढ़ की विशिष्ट एवं सर्वथा भिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक सत्ता को परिभाषित करते हुए इसके पृथक राजनैतिक सत्ता की वकालत अप्रत्यक्ष रूप में आज से आठ दशक पूर्व ही कर दी थी. उनकी यह पांडुलिपि एक राजनैतिक दस्तावेज है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विचारकों के विवेचनार्थ एक समर्थ सामग्री है. इन्हें गांधीजी ने अपना गुरु ( अछूतोद्धार के क्षेत्र में ) स्वीकार किया था, अतः पं. शर्मा का राज्य में वही स्थान है जो गांधीजी का भारत राष्ट्र में है. असहयोग आन्दोलन के ठीक पूर्व पं. शर्मा के ‘कंडेल सत्याग्रह’ की सफलता ने छत्तीसगढ़ को राष्ट्र के राजनैतिक नक्शे में अंकित किया. छत्तीसगढ़ की राजनैतिक जागृति से प्रभावित होकर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान गांधीजी सहित चोटी के अनेक राजनेताओं ने छत्तीसगढ़ में राजनैतिक यात्राएँ कीं. इन घटनाओं से देश में छत्तीसगढ़ की पृथक् एवं स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता स्थापित हुई एवं अब पृथक् राज्य का दावा स्थापित हो चुका था.
- छत्तीसगढ़ राज्य की माँग – 1924 ई. में रायपुर जिला परिषद् ने एक संकल्प पारित कर मध्यप्रांत से पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य की माँग की थी. इसके बाद कांग्रेस के त्रिपुरी (जबलपुर) अधिवेशन, 1939 में भी यह माँग रखी गई. स्वातंत्र्योत्तर काल में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के उद्देश्य से 1953 के अंत में ‘सैयद फज़ल अली’ की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग गठित हुआ था. आयोग के समक्ष छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधियों ने यह माँग रखी थी. इसी मध्य 1955 में रायपुर के विधायक ठा. रामकृष्ण सिंह ने मध्यप्रांत की विधान सभा में यह माँग रखी. इसी बीच 28 जनवरी, 1956 को राजनांदगाँव में ‘छत्तीसगढ़ महासभा’ का गठन डॉ. खूबचंद्र बघेल की अध्यक्षता में किया गया. इस सभा के मंच से इसके महासचिव दशरथ चौबे, केयूरभूषण व हरिठाकुर आदि नेताओं ने छत्तीसगढ़ राज्य की माँग की, किन्तु छत्तीसगढ़ का पृथक राज्य हेतु अत्यंत सबल पक्ष होने के बावजूद 1956 को छत्तीसगढ़ को मध्यप्रांत में ही रखकर, बरार को तत्कालीन वृहद् मुम्बई राज्य में मिला दिया गया. अब छत्तीसगढ़ पुनर्गठित मध्यप्रांत अर्थात् मध्य प्रदेश राज्य का हिस्सा बन गया.
- किन्तु राज्य की माँग ने आधार बना लिया था. आगे की प्रमुख कोशिशों में 16 जनवरी, 1967 को रायपुर में सम्मेलन और राष्ट्रपति से पृथक् राज्य की माँग. और इसी उद्देश्य से 1967 को ही राज्य सभा सदस्य डॉ. खूबचंद बघेल द्वारा ‘छत्तीसगढ़ भातृसंघ’ की स्थापना आदि के साथ कसडोल से विधायक बनकर मुख्यमंत्री बने स्व. द्वारका प्रसाद मिश्र ने भी 1971 में सक्रिय राजनीति से पृथक होने के पूर्व प्रधानमंत्री के समक्ष छोटे राज्यों की स्थापना की वकालत की थी जिससे छत्तीसगढ़ की माँग को बल मिला था. पृथक् राज्य की माँग के पीछे निम्न मौलिक कारण थे-
- सांस्कृतिक – छत्तीसगढ़ की भाषा, बोली, रहन-सहन, परम्परा एवं विशिष्ट संस्कृतिक शेष मध्य प्रदेश से भिन्न है.
- भौगोलिक – छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल भारत के अनेक राज्यों तथा विश्व के अनेक राष्ट्रों से अधिक है साथ ही राजधानी भोपाल की दूरी अंचल से अधिक होने के कारण उचित प्रशासनिक नियंत्रण नहीं हो पाता था. नीतिगत फैसले करने एवं उनके क्रियान्वयन में भी विलंब होता था. प्रशासनिक – महत्वपूर्ण संस्थान व उपक्रम छत्तीसगढ़ में स्थापित न कर शेष मध्य प्रदेश के क्षेत्रों में ही रखे गए.
- शोषण क्षेत्र से प्राप्त राजस्व की तुलना में यहाँ के विकास हेतु अपर्याप्त व्यय.
- मानव संसाधन – छत्तीसगढ़ की आबादी मालदीव, कुवैत, इराक, नेपाल व श्रीलंका जैसे राष्ट्रों से भी अधिक है. यहाँ श्रम संसाधन प्रचुरता में उपलब्ध हैं.
- आर्थिक – कृषि और उद्योग के क्षेत्र में प्रगति अपेक्षाकृत शेष मध्य प्रदेश में अधिक हुई, जबकि छत्तीसगढ़ पिछड़ा रह गया. यहाँ के खनिज संसाधनों का दोहन, किन्तु उससे उपार्जित राजस्व का पर्याप्त लाभ नहीं.
- साधन-छत्तीसगढ़ में खनिज संसाधन जैसे कोयला, लोहा, बॉक्साइट, हीरा, सीसा, अभ्रक आदि की प्रचुरता के साथ कुल 40 से अधिक खनिज, प्रचुर जल संसाधन एवं आवश्यकता से अधिक बिजली, कृषि हेतु पर्याप्त भूमि, सम्पूर्ण प्रदेश में विविध वनों का फैलाव आदि की दृष्टि से छत्तीसगढ़ एक आत्म निर्भर राज्य बनने का हकदार था.
- 18 मार्च, 1994 को साजा (दुर्ग) से कांग्रेस विधायक द्वारा मध्य प्रदेश विधान सभा में पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य बनाए जाने की दिशा में अशासकीय संकल्प प्रस्तुत किया गया जो सर्वसम्मति से पारित हुआ. इसके पश्चात् 25 मार्च, 1998 को लोक सभा चुनाव के बाद संसद के दोनों सदनों को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में छत्तीसगढ़ बनाने के लिए कार्यवाही शुरू करने के सम्बन्ध में प्रतिबद्धता व्यक्त की. इसके बाद मध्य प्रदेश विधान सभा ने 1 मई, 1998 को शासकीय संकल्प पारित किया. ये दोनों घटनाएँ छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण एवं मार्ग प्रशस्त करने वाली थीं. 1 सितम्बर, 1998 को राज्य विधान सभा ने राष्ट्रपति द्वारा भेजे मध्य प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, 1998 में लगभग 40 संशोधनों के साथ वापस राष्ट्रपति को भेजा. अब राज्य निर्माण केन्द्र सरकार का कार्य रह गया था. अतः 25 जुलाई, 2000 को केन्द्र सरकार द्वारा लोक सभा में छत्तीसगढ़ संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया, जो 31 जुलाई, 2000 को पारित हुआ, जो 9 अगस्त, 2000 को राज्य सभा में भी एक संशोधन (छत्तीसगढ़ में राज्य सभा की सीटों से सम्बन्धित ) के साथ पारित हो गया. इस संशोधन को लोक सभा ने भी उसी दिन स्वीकार कर लिया. 28 अगस्त, 2000 को भारत के राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात् यह ‘मध्य प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000’ बन गया. और यह भारत के राजपत्र में अधिनियम संख्या 28 के रूप में अधिसूचित हुआ. इस प्रकार अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप निर्धारित तिथि 1 नवम्बर, 2000 को मध्य प्रदेश से पृथक् होकर छत्तीसगढ़ भारत संघ का 26वाँ राज्य बना.
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